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उत्तर वैदिक काल (Uttar Vaidik kaal) | Post Vedic period | Later Vedic Period (1000BC-600BC)
उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period | Uttar Vaidik kaal) वह काल है जिसमें ऋग्वेद के बाद के वेद यथा- सामवेद, यजुर्वेद एवं अथर्ववेद और इनसे संबंधित ब्राह्मण ग्रन्थों, अरण्यकों एवं उपनिषदों की रचना हुई।
उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period in Hindi) के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं यथा, पुरातात्विक एवं साहित्यिक, जिनमें से साहित्यिक स्रोत अधिक महत्वपूर्ण हैं, जिसके अंतर्गत ऋग्वेद को छोड़ सभी वैदिक साहित्य एवं उसके बाद के ग्रंथ शामिल हैं ।
उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period) : पुरातात्विक साक्ष्य
उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period | Uttar Vaidik kaal) के अध्ययन के लिए दो पुरातात्विक साक्ष्य महत्त्वपूर्ण हैं- चित्रित धूसर मृदभांड और लोहे के उपकरण। माना जाता है कि भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में लोहे के उपकरणों का प्रचलन लगभग 1000 ई.पू. प्रारंभ हुआ।
वस्तुत: चित्रित धूसर मृदभांडों के साथ लौह उपकरण एवं ताँबे तथा काँसे के उपकरण मिले हैं। इस आधार पर माना जाता है कि चित्रित धूसर मृदभांड में भी दो चरण रहे- (1) पूर्व लौह चरण तथा (2) लौह चरण।
उत्तर वैदिक काल (Post Vedic period) : भौगोलिक क्षेत्र
उत्तर वैदिक काल के अन्तिम समय में 600 ई.पू. के आस-पास आर्य लोग कोशल, विदेह एवं अंग राज्य से परिचित थे। संभवत: इस समय जनपद का विकास होने लगा था। इस संस्कृति का मुख्य केन्द्र मध्य देश था।
पुरु एवं भरत मिलकर कुरु और तुर्वश एवं क्रिवि मिलकर पांचाल कहलाए।
मगध व अंग आर्य क्षेत्र के बाहर थे। अथर्ववेद में मगध के लोगों का व्रात्य कहा गया है।
उत्तर वैदिक कालीन ग्रंथों में ‘त्रिककुद’ नामक एक पर्वत श्रृंखला का उल्लेख मिलता है।
तैत्तिरीय अरण्यक के ‘कौञ्च’ और ‘मैनाक’ पर्वतों का उल्लेख मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण में उत्तरवैदिक कालीन रेवा (नर्मदा) और सदानीरा(गंडक) नदियों का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल (Later vedic Period) : राजनीतिक व्यवस्था
उत्तर वैदिक काल में राजा के स्वरुप में परिवर्तन हुआ वह अब एक भौगोलिक क्षेत्र विशेष पर शासन करने लगा जो ऋग्वैदिक काल में महत्वहीन था।
राष्ट्र शब्द, जो प्रदेश का सूचक है पहली बार इस काल में प्रकट हुआ। उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली प्रमुख थी किन्तु गणतंत्रात्मक व्यवस्था का भी उदाहरण मिलता था।
उत्तरवैदिक काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित राज्य था। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा गया है।
उपनिषद काल में अनेक दार्शनिक राजा हुए। जिनमें प्रमुख थे- विदेह के जनक, कैकेय के अश्वपति, काशी के अजातशत्रु और पांचाल के प्रवाहरण जाबालि।
सभा एवं समिति इस समय भी राजा की निंरकुशता पर रोक लगाती थी।
सभा श्रेष्ठ जनों की संस्था थी तथा समिति (जनसामान्य की) राज्य की केन्द्रीय संस्था थी। समिति की अध्यक्षता राजा स्वयं करता था। समिति की अध्यक्षता करने वाले को ईशान भी कहा जाता था।
अथर्ववेद में सभा को ‘नरिष्ठा‘ कहा गया है। इस काल में विदथ का उल्लेख नहीं मिलता है जो वैदिक काल में महत्वपूर्ण संस्था थी।
ऐतरेय ब्राह्मण में ही राज्य की उत्पत्ति या राजा की दैवी उत्पत्ति सम्बन्धी विवरण मिलता है। अब राजा सामान्य उपाधियों के स्थान पर राजाधिराज, सम्राट, एकराट जैसी उपाधियाँ धारण करता था।
यजुर्वेद में राज्य उच्च पदाधिकारियों को ‘रत्नी‘ कहा जाता था। ‘रत्नियों’ की सूची में राजा के सम्बन्धी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी गण आते । ये राजपरिषद के सदस्य थे।
उत्तर वैदिक काल में भी राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था। उत्तर वैदिक काल में करारोपण लागू हो गई थी। इस समय संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) तथा भागदुध (अर्थमंत्री) अर्थात् करों को वसूलने वाला आदि के नाम मिलते हैं।
अथर्ववेद के अनुसार राजा को आय का 1/6वाँ भाग मिलता था। ऋग्वैदिक काल में बलि एक स्वेच्छाकारी कर था, जबकि उत्तर वैदिक काल में यह एक नियमित कर हो गया।
राजसूय– यह राजा के राज्याभिषेक हेतु होता था। इस अनुष्ठानिक यज्ञों से प्रजा को यह विश्वास हो जाता था कि उसके सम्राट की दिव्य शक्ति मिल गई है। इसमें सोम पिया जाता था। इस यज्ञ के दौरान राजा रत्नियों के घर जाता था।
अश्वमेध– इस यज्ञ में राजा द्वारा छोड़ा गया घोड़ा जिन-जिन क्षेत्रों से बिना किसी प्रतिरोध के गुजरता था, उन सभी क्षेत्रों पर राजा का एकछत्र राज्य स्थापित हो जाता था।
वाजपेय– इस यज्ञ में राजा रथों की दौड़ का आयोजन करता था। जिनमें राजा को सहयोगियों द्वारा विजयी बनाया जाता था।
अग्निष्टोम– इस यज्ञ में सोम पीया जाता था तथा अग्नि को पशुबलि दी जाती थी।
सौत्रामणि यज्ञ – इस यज्ञ में पशु और सुरा की आहुति दी जाती थी।
पुरुषमेध यज्ञ – राजनैतिक वर्चस्व के लिए पुरुष की बलि दी जाती थी।
पंच महायज्ञ– गृहस्थ आर्यों को पंच महायज्ञों का अनुष्ठान करना पड़ता था।
उत्तर वैदिक काल (Later vedic Period) : सामाजिक संगठन
उत्तर वैदिक काल का समाज चातुर्वर्णव्यवस्था पर आधारित था – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ।ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य इन तीनों को द्विज कहा जाता था। ये उपनयन संस्कार के अधिकारी थे। चौथा वर्ण (शूद्र) उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था।
इस काल में वर्ण व्यवस्था का आधार कर्म पर आधारित न होकर जाति पर आधारित हो गया तथा वर्णों में कठोरता आने लगी थी। व्यवसाय आनुवंशिक होने लगे। समाज में अनेक श्रेणियों का उदय हुआ, जो विभिन्न जातियों में बदलने लगीं।
उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही कर चुकाते थे। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों वैश्यों से वसूले राजस्व पर जीते थे।
शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊँचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था।
ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है, कि ब्राह्मण जीविका चलाने वाला और दान देने वाला है।
उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई, फिर गोत्र वहिर्विवाह का प्रचलन हुआ।
इस समय एक समाज में अस्पृश्यता की भावना का उदय नहीं हुआ था, किन्तु समरस समाज भी नहीं था।
बृहदारण्यक एवं छन्दोग्य उपनिषद में चाण्डाल को भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी माना गया है।
उत्तर वैदिक ग्रन्थों में केवल तीन आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ) की जानकारी मिलती है, जबकि सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रमों का विवरण मिलता है।।
ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपण कहा गया है। ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा इस काल में स्त्रियों की स्थिति में ह्रास हुआ। इस काल में स्त्रियों के लिए उपनयन संस्कार प्रतिबन्धित हो गया था। उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों का पैतृक सम्पत्ति से अधिकार छिन गया। इस काल में स्त्रियों का सभा में प्रवेश वर्जित था।
शतपथ ब्राह्मण में अनेक विदुषी कन्याओं का उल्लेख मिलता है, ये हैं- गार्गी, गन्धर्व, गृहीता, मैत्रेयी आदि।
शतपथ ब्राह्मण से विदेथ माधव के कथा का वर्णन मिलता है, जिसने अग्नि को मुँह में धारण कर आर्य संस्कृति का प्रसार पूर्व दिशा में सदानीरा (गंडक) तक किया।
उत्तर वैदिक काल (Later vedic Period) : आर्थिक जीवन
कृषि इस काल में आयों का मुख्य व्यवसाय था। शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं जुताई बुआई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख हुआ है।
कृषि में लोहा का उपयोग आरम्भ हो गया जिसके कारण फसलों में विविधता आई। यजुर्वेद में इसके लिए ‘श्याम अयस’ और ‘कृष्ण अयस’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
अतरंजीखेड़ा से कृषि संबंधी लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
वैदिक ऋचाओं से पता चलता है कि लोग देवताओं से पशुओं की है वृद्धि के लिए प्रार्थना करते थे, क्योंकि अब तक पशु ही उनके चल सम्पत्ति के आधार थे।
काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा खीचें जाने वाले हलों का उल्लेख मिलता है।
ॠग्वैदिक लोग जौ (यव) पैदा करते ते, परन्तु उत्तर वैदिक काल में उनकी मुख्य फसल धान और गेहूँ हो गयी।
अथर्ववेद के विवरण के अनुसार सर्वप्रथम पृथवैन्य ने हल और कृषि को जन्म दिया
उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मृदभाण्डों से परिचित थे-
- काले व लाल रंग के मिश्रित भाण्ड
- काले रंग के भाण्ड
- चित्रित धूसर मृदभाण्ड (इस युग की विशेषता) तथा
- लाल भाण्ड (सर्वाधिक प्रचलित)।
उद्योग- कृषि के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के शिल्पों जैसे धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार, व्यापारी आदि का उदय भी उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की अन्य विशेषता थी।
वस्त्र निर्माण एक प्रमुख उद्योग था, वस्त्र के लिए ऊन, सन का प्रयोग होता था। इस समय कपास का उल्लेख नहीं मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण में महाजनी प्रथा का पहली बार जिक्र हुआ है तथा सूदखोर और कुसीदिन कहा गया है। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द मिलता है।
स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग में आर्य टिन, ताँबा, चाँदी, सीसा आदि धातुओं से परिचित हो चुके थे।
व्यापार-उत्तर वैदिक काल में मुद्रा (पण) का प्रचलन हो चुका था; परन्तु सामान्य लेन-देन में या व्यापार वस्तु विनिमय द्वारा ही होता था।
निष्क, शतमान, पाद आदि माप की भिन्न-भिन्न इकाइयाँ थी। निष्क- जो ऋग्वैदिक काल में एक आभूषण था, अब एक मुद्रा माना जाने लगा।
बाट की मूलभूत इकाई सम्भवतः कृष्णल था। रत्तिका तथा गुंजा भी तौल की एक इकाई थी।
उत्तर वैदिक काल (Later vedic Period) : धार्मिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में उत्तरी दोआब ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केन्द्र स्थल बन गया जिसका मूल यज्ञ था इसके साथ अनेक अनुष्ठान मन्त्र प्रचलित हुए।
ऋग्वैदिक काल के दो प्रमुख देवता इन्द्र और अग्नि का अब पहले जैसा महत्त्व नहीं रहा। उनके स्थान पर प्रजापति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया।
उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरम्भ होने का कुछ आभास मिलने लगता है। उत्तर वैदिक काल में ही बहुदेववाद, वासुदेव सम्प्रदाय एवं षड्दर्शनों (सांख्य, योग्य, न्याय, वैषेषिक, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा) का बीजारोपण हुआ।
दर्शन | रचयिता/प्रवर्तक |
न्याय | गौतम (न्याय सूत्र) |
योग | पतंजलि (योग सूत्र) |
भौतिकवादी/चार्वाक | चार्वाक |
सांख्य | कपिल |
पूर्व मीमांसा | जैमिनी/कुमारिलभट्ट |
उत्तर मीमांसा | बादरायण (ब्रह्म सूत्र) |
वैशेषिक | कणाद |
पशुओं के देवता रुद्र इस काल में एक महत्त्वपूर्ण देवता बन गये। उत्तर वैदिक काल में इनकी पूजा शिव के रूप में होने लगी।
विष्णु को सर्व संरक्षक के रूप में पूजा जाता था। ऋग्वैदिक काल में ‘पूषन’ पशुओं के देवता थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता के रूप में प्रचलित हो गए।
उपनिषदों में स्पष्टतः यज्ञों तथा कर्मकाण्डों की निन्दा की गई है। तथा ब्रह्म की एक मात्र सत्ता स्वीकार की गई है।
मुण्डकोपनिषद में ‘सत्यमेव जयते’ का उल्लेख है।
‘निष्काम कर्म सिद्धान्त’ का प्रथम प्रतिपादन इशोपनिषद में हुआ। ‘पुनर्जन्म के सिद्धांत’ का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण मिलता है।
कठोपनिषद में आचार्य यम द्वारा नचिकेता को ब्रह्म विद्या का उपदेश दिया गया।
FAQ
उत्तर वैदिक काल क्या है?
1000 – 600 ईसा पूर्व के बीच का काल, उत्तर वैदिक काल, भौगोलिक प्रसार, कृषि में लोहे के उपयोग के कारण हुए आर्थिक विविधिकरण, राजनैतिक प्रणाली की स्पष्टता एवं विस्तार, दार्शनिक विकास, सामाजिक कठोरता आदि का काल था।
उत्तर वैदिक काल का देवता कौन है?
प्रजापति (सृजन के देवता) उत्तर वैदिक काल (Post vedic Period) के सर्वोच्च देवता थे। इस काल के अन्य प्रमुख देवता रूद्र (पशुओं के देवता), विष्णु (पालनकर्ता), पूषन (शूद्रों के देवता) आदि थे।