आरक्षण की वर्तमान स्थिति का निर्धारण हाल के समय में न्यायपालिका द्वारा किए गए विवेचनाओं से स्पष्ट होता है। दूसरे शब्दों मे स्वतंत्रता के बाद संविधान में अभिकल्पत आरक्षण का विषय कई कारणों से परिवर्तित हुआ है।
आरक्षण का प्रावधान संविधान में एक नियत अवधि के लिए लाया गया था जिसे परिवर्तित किया गया, आरंभ में आरक्षण का प्रावधान सिर्फ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए मान्य था, आगे चलकर पिछड़ा वर्ग (OBC) एवं आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को भी आरक्षण के दायरे में लाया गया।
इस प्रकार आरक्षण की वर्तमान स्थिति विभिन्न वादों जैसे इंदिरा साहनी, नटराजन वाद आदि में न्यायपालिका द्वारा दिए गए निर्णयों द्वारा निर्धारित होती है। आरक्षण के संबंध में समय समय पर सरकार द्वारा लिए गए निर्णय भी आरक्षण की वर्तमान स्थिति के निर्धारण मे योगदान करते हैं।
नोट: आरक्षण की वर्तमान स्थिति के अंतर्गत, आरक्षण के संबंध मे कुछ अभ्यास प्रश्न नीचे दिए गए हैं जिनका उत्तर लिखने का प्रयास किया जाना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि नीचे दिए गए स्टडी मटेरियल का उपयोग प्रश्नों को लिखने में मार्गदर्शन के लिए किया जा सकता है, मटेरियल को किसी भी प्रश्न का उत्तर के रूप मे प्रस्तुत नहीं किया गया है।
Table of Contents
आरक्षण की वर्तमान स्थिति
आरक्षण की वर्तमान स्थिति आधारित प्रश्न
प्रश्न : हाल ही में आरक्षण का मुद्दा क्यों समाचारों में था ? सविस्तार वर्णन करें.
प्रश्न: आरक्षण के मुद्दे को न्यायपालिका ने हाल में किस प्रकार अर्थ अन्वेषण किया है? वर्णन करें।
प्रश्न: आरक्षण क्या मौलिक अधिकार है ? मराठा आरक्षण का मुद्दा क्या है एवं इस विषय में न्यायपालिका ने क्या निर्णय दिया है?
संविधान के द्वारा समाज के पिछड़े लोगों के कल्याण के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है, जिसके विषय एवं विस्तार को लेकर सदैव बहस चलता रहा है. हाल ही में यह मुद्दा निम्न कारणों से चर्चा में था:-
मराठा आरक्षण का मुद्दा
- बॉम्बे हाईकोर्ट के फैसले ने मराठों के लिए आरक्षण पर महाराष्ट्र सरकार के कानून को बरकरार रखा। इस कानून ने मराठा समुदाय को शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण लाभ प्रदान किए थे ।
इसने सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग (एसईबीसी) नामक एक समूह बनाया । एसईबीसी श्रेणी के तहत एकमात्र समूह मराठों को शामिल किया था, और उन्हें 16% आरक्षण प्रदान किया था ।
महाराष्ट्र में पहले से कुल आरक्षण 52% है, जिसमें से बड़ा कोटा अनुसूचित जाति (13%), अनुसूचित जनजाति (7%) और ओबीसी (19%) को प्राप्त है।
इस प्रकार, यह अतिरिक्त मराठा आरक्षण कुल आरक्षण सीमा को 68% तक ले जाता है (50% की सीमा से परे चला जाता है जो उच्चतम न्यायालय द्वारा लगाया गया है) ।
इंद्र साहनी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, 1992, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग या विशेष श्रेणियों के लिए कुल आरक्षण 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।
जून 2019 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे कम करते हुए शिक्षा में 12% और नौकरियों में 13% आरक्षण निर्धारित किया। हाईकोर्ट ने कहा कि अपवाद के तौर पर राज्य में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% आरक्षण की सीमा पार की जा सकती है।
महाराष्ट्र सरकार के निर्णय को चुनौती देने वाली याचिकाओं को उच्चतम न्यायालय ने उच्च बेंच को सौपने का निर्णय किया है तथा इसने मराठा आरक्षण पर रोक लगा दी.
सरकार का कहना है कि दशकों से इस समूह को पिछड़ा मानने में विफलता ने इसे सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन में धकेल दिया है.
इसके बाद महाराष्ट्र सरकार इस मुद्दे को लेकर सर्वोच्च न्यायालय गई. सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा साहनी केस या मंडल कमीशन केस का हवाला देते हुए तीन जजों की बैंच ने इस पर रोक लगा दी।
साथ ही कहा कि इस मामले में बड़ी बैंच बनाए जाने की आवश्यकता है। चूँकि इंदिरा साहनी वाद में 9 जजों की बेच ने फैसला दिया था तो इस निर्णय की समीक्षा के लिए 11 सदस्यीय बेंच को मामला सौपना होगा.
सुप्रीम कोर्ट के उच्च पीठ ने कहा कि मराठा समुदाय को कोटा के लिए सामाजिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित नहीं किया जा सकता है, यह 2018 महाराष्ट्र राज्य कानून समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है।
कोर्ट ने कहा कि हम 1992 के फैसले की फिर से समीक्षा नहीं करेंगे, जिसमें आरक्षण का कोटा 50 फीसदी पर रोक दिया गया था.
यह संदेहास्पद है कि क्या राजनीतिक रूप से एक प्रभावशाली और प्रमुख समुदाय को अपने आप में विशेष श्रेणी के रूप में माना जा सकता है। अधिकांश समय आरक्षण का मुद्दा राजनितिक मुद्दे के रूप में सामने आता है।
आरक्षण मूल अधिकार नहीं
- अदालत ने एक अन्य मामले में टिप्पणी करते हुए कहा है कि आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है और अगर कहीं पर सरकार ने नौकरियों में और पदोन्नतियों में आरक्षण नहीं दिया है तो उसे आरक्षण देने पर बाध्य नहीं किया जा सकता है।
यह मामला 2012 में उत्तराखंड सरकार द्वारा लिए गए एक फैसले से संबंधित था। पांच सितंबर 2012 को तत्कालीन उत्तराखंड सरकार ने निर्णय लिया था कि राज्य में जन सेवाओं में सारे पद अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को कोई भी आरक्षण दिए बिना भरे जाएंगे।
इस फैसले को बाद में जब उत्तराखंड उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, तो अप्रैल 2019 में उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के फैसले को रद्द कर दिया।
बाद में उच्च न्यायालय ने अपने ही फैसले का पुनरावलोकन करते हुए राज्य सरकार को निर्देश दिया कि वो राज्य सरकार की विभिन्न सेवाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अधिकारियों के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के संबंध में परिमाणित करने लायक आंकड़े इकट्ठे करे।
उच्च न्यायालय का कहना था कि इन आंकड़ों के आधार पर राज्य सरकार फैसला ले पाएगी कि आरक्षण देना है या नहीं।
उच्च न्यायालय के इस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई और उसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला आया है जिसमें कहा गया कि आरक्षण मौलिक अधिकार नहीं है।
क्या वाकई आरक्षण मूल अधिकार नहीं है?
इस सवाल का जवाब पेंचीदा है. यूं तो आरक्षण की चर्चा भारतीय संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 15 (4), (5) और 16 (4) के तहत है.
लेकिन चूंकि पूरे का पूरा भाग 3 ही मूल अधिकारों से संबंधित है इसलिए ये मान लिया जाता है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है. किन्तु जब नयायपालिका ने कहा है कि यह मूल अधिकार नहीं है, इसलिए यही मानना उचित है कि यह मूल अधिकार नहीं है.
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए क्रीमी लेयर
- केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से सात जजों की पीठ बनाने की मांग की है ताकि वह पहले के अपने आदेश पर पुनर्विचार कर सके जिसमे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने का निर्देश दिया गया था.
वस्तुतः 2006 में नागराजन मामले में, उच्चतम न्यायालय ने आदेश दिया कि नौकरियों और प्रवेश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के क्रीमी लेयर को लाभ के दायरे से बाहर रखा जाए।
किन्तु किसी भी सरकार ने इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। केंद्र सरकार इस विषय पर उच्च बेंच का निर्णय प्राप्त करना चाहती है।
क्रीमी लेयर की अवधारणा उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्ष 1993 में इंदिरा साहनी मामले दिया गया था. इसमें कहा गया था कि ओबीसी वर्ग के क्रीमी लेयर के लोगों को आरक्षण के लाभ के दायरे से बहार रखा जायेगा।
उल्लेखनीय है कि न्ययालय ने वर्ष 2018 में जरनैल सिंह वाद में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में क्रीमी लेयर की अवधारणा को लागू करने का निर्देश दिए थे।
हालांकि वर्ष 2018 में भी उच्चतम न्ययालय ने इस विषय को 7 सदस्यीय बेंच को दिए जाने के आग्रह को अस्वीकार कर दिया था.
- पंजाब ने अनुसूचित जाति की सूची में क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करते हुए वाल्मीकि एवं मजहबी सिखों को वरीयता प्रदान की है. यह मामला भी सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया – विषय है कि क्या राज्य का निर्णय सही है ?
- वर्ष 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में कहा था कि राज्य को एक उपसूची बनाने का अधिकार नहीं है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 2000 में आंध्र प्रदेश द्वारा किये गए ऐसे ही प्रयास को गैर संवैधानिक घोषित किया जा चूका है।
- सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति द्वारा तैयार किये गए अनुसूचित जाति की सूची में राज्य सरकार किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर सकती है.
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए क्रीमी लेयर की अवधारणा लागू करने के लिए निर्देश दिया हैं.
विधायिका में आरक्षण
- संसद ने 126 वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कर, लोक सभा एवं राज्य की विधानसभाओं में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण का विस्तार अगले 10 वर्ष तक किया गया अर्थात अब आरक्षण 25 जनवरी 2030 तक जारी रहेगा ।
- लेकिन एंग्लो इंडियंस के लोकसभा और कुछ राज्यों की विधानसभाओं में मनोनयन के प्रावधान को समाप्त कर दिया.
- इसके तहत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 334 में संशोधन किया गया।
पदोन्नति में आरक्षण
- सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित कोई भी व्यक्ति पदोन्नति में आरक्षण का दावा नहीं कर सकता। पदोन्नति में आरक्षण का दावा करने का मौलिक अधिकार नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में दिए जरनैल सिंह से संबंधित विवाद के मामले में जो सवाल उठे थे उस पर अपना जवाब देते हुए कहा कि प्रमोशन में रिजर्वेशन के लिए अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का डेटा तैयार करने की जिम्मेदारी राज्य की है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालत इसके लिए कोई मापदंड तय नहीं कर सकती है और अपने पूर्व के फैसलों के मानकों में बदलाव नहीं कर सकती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक निश्चित अवधि के बाद प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता के आकलन के अलावा मात्रात्मक डेटा का संग्रह अनिवार्य है। ये समीक्षा अवधि केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित की जानी चाहिए।
- शीर्ष अदालत ने 2019 में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ द्वारा पारित बीके पवित्रा-2 के फैसले को भी एम नागराज फैसले में निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन माना है। बीके पवित्रा-2 फैसले में कोर्ट ने तब कर्नाटक के आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों को वरिष्ठता प्रदान करने के लिए 2018 के आरक्षण कानून को बरकरार रखा था।
EWS आरक्षण
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए लागू EWS आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट मार्च में सुनवाई करने वाला है। शीर्ष अदालत की ओर से इस कोटे के लिए तय की गई 8 लाख रुपये की आय सीमा की समीक्षा की जाएगी।
दरअसल शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार से 8 लाख रुपये की आय सीमा को अव्यवहारिक बताते हुए समीक्षा किए जाने की बात की थी। इस पर केंद्र सरकार की ओर से पैनल भी गठित किया गया था, जिसने इसे सही करार दिया था।
सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले
इंदिरा साहनी वाद:
साल 1991 में पीवी नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने आर्थिक आधार पर सामान्य श्रेणी के लिए 10 फीसदी आरक्षण देने का आदेश जारी किया था, जिसे इंदिरा साहनी ने कोर्ट में चुनौती दी थी।
इंदिरा साहनी केस में नौ जजों की बेंच ने कहा था कि आरक्षित स्थानों की संख्या कुल उपलब्ध स्थानों के 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के इसी ऐतिहासिक फैसले के बाद से कानून बना था कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता।
समय-समय में राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल जब भी आरक्षण मांगते तो सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला आड़े आ जाता है। इसके लिए राज्य सरकारें तमाम उपाय भी निकाल लेती हैं।
देश के कई राज्यों में अभी भी 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण दिया जा रहा है।
1992- इंदिरा साहनी केस – क्रीमी लेयर को ओबीसी आरक्षण से दूर किया और आरक्षण में 50% की सीमा तय कर दी थी।
2006 – एम नागराज केस – प्रमोशन में रिजर्वेशन की सीमा को न्यायोचित ठहराने के लिए मात्रात्मक आंकड़ा जुटाने की शर्त अनिवार्य कर दी गई थी।
2006 में आए नागराज से संबंधित वाद में अदालत ने कहा था कि पिछड़ेपन का डेटा एकत्र किया जाएगा। ये भी कहा गया था कि प्रमोशन में आरक्षण के मामले में क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू होगा। सरकार अपर्याप्त प्रतिनिधित्व और प्रशासनिक दक्षता को देखेगी।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस केस में आदेश दिया था कि ‘राज्य एससी/एसटी के लिए प्रमोशन में रिजर्वेशन सुनिश्चित करने को बाध्य नहीं है।
हालांकि, अगर कोई राज्य अपने विवेक से ऐसा कोई प्रावधान करना चाहता है तो उसे क्वांटिफिएबल डेटा जुटाना होगा ताकि पता चल सके कि समाज का कोई वर्ग पिछड़ा है और सरकारी नौकरियों में उसका उचित प्रतिनिधित्व नहीं है।’
2018 – जरनैल सिंह केस- नागराज केस पर पुनर्विचार का आग्रह खारिज कर दिया गया था। क्रीमी लेयर के एससी/एसटी कर्मचारियों को प्रमोशन में रिजर्वेशन का लाभ नहीं देने का फैसला सुप्रीम कोर्ट ने दिया था।
2019 – पवित्र II जजमेंट – सुप्रीम कोर्ट ने पदोन्नति में आरक्षण के लिए निर्धारित शर्तों को नरम कर दिया था। शीर्ष अदालत ने 2019 में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ द्वारा पारित बीके पवित्रा-2 के फैसले को भी एम नागराज फैसले में निर्धारित सिद्धांतों का उल्लंघन माना है।
आरक्षण सम्बन्धी संवैधानिक प्रावधान (Reservation related Constitutional provision)
- संविधान के भाग 3 में समानता के अधिकार का वर्णन किया गया है, इसके अंतर्गत संविधान के अनुच्छेद- 15 के अनुसार, विभेद का प्रतिषेध किया गया है एवं कहा गया है कि किसी व्यक्ति के साथ जाति, प्रजाति, लिंग, भाषा, धर्म या जन्म के स्थान पर भेदभाव नहीं किया जाएगा |
अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार यदि राज्य को लगता है, तो वह सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है |
- संविधान के अनुच्छेद -16 में राज्य के अवसरों की समानता की बात कही गई है | अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार यदि राज्य को लगता है, कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है, तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है |
- अनुच्छेद- 330 के अंतर्गत संसद तथा अनुच्छेद- 332 में राज्य विधान सभाओं में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं |
- संविधान के 103वें संशोधन के तहत केंद्र सरकार ने जनवरी 2019 सरकारी नौकरी और शिक्षण संस्थानों में आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए 10 फ़ीसदी आरक्षण का प्रावधान किया था.