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ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति (Rigvedic Culture) ||आरंभिक वैदिक संस्कृति (Early vedic period in hindi)
ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति (Rigvedic Culture) अथवा आरंभिक वैदिक संस्कृति (Early vedic period in hindi) की विशेषताओं का निर्धारण मुख्यत: ऋग्वेद के आधार पर किया जाता है ऋग्वैदिक काल के लिए पुरातात्विक साक्ष्यों का अभाव है. ऋग्वैदिक काल का इतिहास जानने के लिए पूर्णत: ऋग्वेद ही आधार है तथा इसी के आधार पर ऋग्वैदिक काल का धार्मिक जीवन, ऋग्वैदिक काल का सामाजिक जीवन, ऋग्वैदिक काल का राजनीतिक जीवन अथवा दशा एवं ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति का ज्ञान प्राप्त होता है.
ऋग्वैदिक काल के पुरातात्विक साक्ष्य :
ऋग्वैदिक काल के पुरातात्विक साक्ष्य चित्रित धूसर मृदभाण्ड हैं।
खुदाई में हरियाणा के पास भगवान पुरा से 13 कमरों वाला मकान मिला है जिनका सम्बन्ध ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।
बोगाज-कोई अभिलेख / मितल्पी अभिलेख (1400 ई.पू.) इस लेख में हित्ती राजा शुब्विलुलियुम और मित्तान्नी राजा मत्तिउआजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।
आर्यों द्वारा चार मृद्भांड प्रयुक्त हुए – काले पोतदार, लाल, काले एवं लाल और चित्रित धूसर मृद्भांड।
आर्यों का विशिष्ट मृद्भांड था – चित्रित धूसर मृद्भांड
परंतु सबसे लोकप्रिय मृद्भांड था- लाल मृद्भांड
ऋग्वैदिक काल के साहित्यिक साक्ष्य :
ऋग्वेदिक काल के साहित्यिक साक्ष्य जिसमें मुख्य रूप से ऋग्वेद एवं उससे सम्बन्धित ग्रंथ आते हैं, का विस्तार से वर्णन वैदिक काल/वैदिक साहित्य पोस्ट में किया गया है.
आर्यों का भौगोलिक विस्तार
आर्यों के भौगोलिक विस्तार का निर्धारण ऋग्वेद में प्राप्त नदियों के आधार पर किया जाता है.
ऋग्वेद में आर्य निवास स्थल के लिए सर्वत्र ‘सप्त सैन्धव‘ शब्द का प्रयोग किया गया है।
सरस्वती और दृशद्वती नदियों के मध्य का प्रदेश अत्यन्त पवित्र माना जाता है। जिसे ब्रह्मावर्त कहा जाता है।
गंगा-यमुना के क्षेत्र को ब्रह्मर्षि देश कहा जाता है।
ऋग्वेद में हिमालय एवं उसकी चोटी मूजवन्त का वर्णन मिलता है।
ऋग्वैदिक काल की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नदी सिन्धु का वर्णन कई बार आया है। इसके अतिरिक्त गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में एक बार तथा यमुना का तीन बार उल्लेख है। ऋग्वेद में नदियों की संख्या लगभग 25 बताई गई है।
ऋग्वैदिक काल की दूसरी सर्वाधिक पवित्र नदी सरस्वती थी।
ऋग्वेद में सरस्वती की ‘नदीतमा‘ (नदियों में प्रमुख) कहा गया है।
विपासा (व्यास) की चर्चा ऋग्वेद के नदी सूक्त में नहीं आया है पर अन्यत्र है एवं इसे परिगणित नदी कहा गया है , यही पर इंद्र ने उषा को पराजित किया था।
ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति : राजनीतिक जीवन
पितृसत्तात्मक परिवार, आर्यों के कबीलाई समाज की बुनियादी इकाई थी। ऋग्वैदिक कालीन राजनितिक प्रणाली कबीलाई प्रणाली पर आधारित थी एवं इस समय कई कबीले थे जो आपसे में संघर्ष करते थे।
‘भरत’ कबीले में ही शासक वर्ग के लोग त्रित्सु के नाम से जाने गए। ‘सृंजय’ व ‘क्रीवी‘ भी भरत कबीले से संबद्ध थे।
ऋग्वेद में आर्यों के पाँच कबीले के होने की वजह से उन्हें पंचजन कहा गया है। ये पाँच कबीले थे- यदु, अनु, द्रुहय, पुरु तथा तुर्वस।
भरत और त्रित्सु दोनों आर्यों के शासक वंश थे और पुरोहित वशिष्ठ इन दोनों वंशों के संपर्क थे।
कालान्तर में भरत वंश के राजा सुदास तथा अन्य दस राजाओं के साथ युद्ध हुआ, जिसमें पाँच आर्य तथा पाँच आर्योत्तर जनों के प्रधान थे।
दाशराज्ञ युद्ध का वर्णन ऋग्वेद के सातवें मण्डल में आया है। यह युद्ध (दस राजाओं के साथ लड़ाई) पुरुष्णी नदी के तट पर हुआ।
दाशराज्ञ युद्ध में सुदास की विजय हुई पराजित जनों में सबसे प्रमुख ‘पुरु’ थे। कालान्तर में भरतों और पुरुओं के बीच मैत्री हो गई और कुरु नाम से एक नया कुल बन गया।
आर्यों के पंचजन्य के निवास स्थल निम्न थे-
- यदु – सिंधु व झेलम के बीच
- अनु – झेलम व चिनाव के बीच
- द्रुहु(द्रुहय) – रावी और व्यास के बीच
- पुरु- सिंधु व सरस्वती के बीच
- तुर्वसु – व्यास के उत्तरी हिस्से में
निम्न चार प्रमुख जन सरस्वती व यमुना के बीच रहते थे
- सृंजय– सतलज के ऊपरी हिस्से में के
- क्रीवी – हरिद्वार के पास
- त्रित्सु – दृशद्वती के ऊपर
- भरत- हरियाणा व सटे हुए राजस्थान
ऋग्वेद में कुछ जनजातियों (अनार्य ) के भी उल्लेख मिलते हैं –
- सिंधु के पश्चिम में आर्य भिन्न जनसमूह थे – अलिन, पक्थ, भलानस, विषाणि एवं शिवि।
- यमुना नदी पर तीन आर्य भिन्न समूह थे – अजास्र, शिग्रु एवं यक्षु।
- दो भिन्न जनजाति जो मध्य एशिया में थी – पृथु पार्शव एवं असवान।
‘ग्राम’, ‘विश’ तथा ‘जन’ उच्चतर इकाई थे। ग्राम सम्भवतः कई परिवारों के समूह को कहते थे। ग्राम का प्रधान ‘ग्रामणी‘ होता था।
‘विश’ कई गाँवों का समूह था जिसका प्रधान ‘विशपति‘ कहलाता था। अनेक विशों का समूह ‘जन’ होता था। जन के अधिपति को ‘जनपति’ या राजा कहा जाता था। देश या राज्य के लिए ‘राष्ट्र‘ शब्द आया है।
ऋग्वेद में ‘जन‘ शब्द का उल्लेख 275 बार मिलता है. जबकि जनपद शब्द का उल्लेख एक बार भी नहीं मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में राजा का पद आनुवंशिक हो चुका था किन्तु उसके अधिकार असीमित नहीं था तथा वह युद्ध का स्वामी था भूमि का नहीं। कबीले की आम सभा – समिति थी जो अपने राजा को चुनती थी। राजा समेत कुल बारह रत्निन होते थे जो राज्याभिषेक के समय उपस्थित रहते थे।
राजा को ‘जनस्य गोपा’ (कबीले का संरक्षक) तथा ‘पुराभेत्ता‘ (नगरों पर विजय पाने वाला ) कहा गया है। ॠग्वेद के दसवें मण्डल में राजा को राष्ट्र या राज्य को बनाये रखने के लिए कहा गया है।
ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ तथा गण जैसे अनेक कबीलाई परिषदों का उल्लेख है।
मैत्रायणी संहिता के अनुसार ऋग्वैदिक काल में महिलाएँ भी सभा एवं विदथ में भाग लेती थीं।
युद्ध के लिए राजा के पास स्थायी सेना नहीं होती थी किन्तु युद्ध के लिए कबीलाई सेना तैयार की जाती थी। ऋग्वेद में इन्द्र को पुरन्दर कहा गया है जिसका अर्थ है पुरों (किलों) का नष्ट करने वाला।
ॠग्वेद में सेनानी (सेनापति), पुरोहित तथा ग्रामणी नामक शासकीय पदाधिकारी का उल्लेख मिलता है, जो राजा की सहायता के लिए होते थे। प्रायः पुरोहित का पद वंशानुगत होता था।
इसके अतिरिक्त अन्य पदाधिकारी जैसे- सूत, रथकार और कर्मार थे। जिन्हें रत्नी कहा जाता था।
‘पुरप’ दुर्गपति होता था तथा सैनिक कार्य भी करता था।
‘स्पर्श’ जनता की गतिविधियों को देखने वाले गुप्तचर होते थे।
‘द्रुत’ समय-समय पर सन्धि-विग्रह के प्रस्तावों को लेकर राजा के पास जाता था।
‘ब्राजपति’ गोचर भूमि का अधिकारी एवं कुलप परिवार का मुखिया होता था।
उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में मंत्रियों अथवा मंत्रिपरिषद का उल्लेख नहीं किया गया है।
‘विदथ’– यह आर्यों की सर्वाधिक प्राचीन संस्था थी। इसे जनसभा भी कहा जाता था।
‘सभा’– यह वृद्ध (श्रेष्ठ) एवं अभिजात (संभ्रान्त) लोगों की संस्था थी। उल्लेखनीय है कि इसकी उत्पत्ति ऋग्वेद के उत्तरकाल में हुई थी।
‘समिति’– यह केन्द्रीय राजनीतिक संस्था (सामान्य जनता की प्रतिनिध सभा) थी। समिति राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी। समिति के सभापति को ईशान कहा जाता है।
उग्र तथा जीव-गृभ सम्भवतः पुलिस कर्मचारी थे।
वैदिक जीवन न्यायाधीशों को ‘प्रश्नविनाक‘ कहा जाता था।
ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति : सामाजिक जीवन
सामाजिक संगठन का आधार गोत्र या जन्ममूलक सम्बन्ध था। परिवार समाज की आधारभूत ईकाई थी। परिवार के प्रधान को कुलप या गृहपति कहा जाता था।
आर्य समाज पितृसत्तात्मक था, परन्तु नारी को मातृरूप में पर्याप्त सम्मान प्राप्त था एवं महिलाओं की स्थिति आने वाले समय की तुलना में अच्छी थी । पत्नी अपने पति के साथ धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेती थी।
पुत्र ही पैतृक सम्पत्ति का उत्तराधिकारी होता था तथा इसमें पुत्री को कोई अधिकार नहीं था।
ऋग्वैदिक काल में संयुक्त परिवार की प्रथा थी तथा परिवार का आकर उसकी सम्पन्नता का परिचायक था।
आरम्भ में ऋग्वैदिक समाज का विभाजन आर्य एवं अनार्य के रूप में मिलता है। सामान्य रूप में आर्य एवं अनार्य अलग-अलग एक विशिष्ट जीवन पद्धति का प्रतिनिधित्व करते थे।
ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था के चिन्ह दिखाई देते हैं। ऋग्वेद में ‘वर्ण‘ शब्द रंग के अर्थ में तथा कहीं-कहीं व्यवसाय चयन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। प्रारम्भ में ऋग्वैदिक समाज में तीन वर्णों का उल्लेख हैं- ब्रह्म, क्षत्र तथा विशः।
ऋग्वैदिक के दसवें मण्डल के पुरुष सूक्त में वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है। इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण परम-पुरुष के मुख से, क्षत्रिय उसकी भुजाओं से, वैश्य उसकी जाँघों से एवं शूद्र उसके पैरों से उत्पन्न हुआ है। शूद्र शब्द का उल्लेख सर्वप्रथम यहीं मिलता है।
ऋग्वैदिक समाज में परवर्ती काल के अपेक्षा महिलाओं को अधिक अधिकार प्राप्त थे। समाज में नियोग प्रथा प्रचलित थी। महिलाओं को राजननीति में सम्मलित होने एवं आर्थिक अधिकार प्राप्त नहीं थे। उन्हें शिक्षा का अधिकार प्राप्त था। पुत्री का उपनयन संस्कार किया जाता था। स्त्रियों को यज्ञ करने का अधिकार था।
समाज में बाल विवाह एवं पर्दाप्रथा प्रचलित नहीं थे। शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को अर्द्धांगिनी कहा गया है। अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे।
‘अमाजू’ – आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्याओं को कहा जाता था। पुनर्विवाह भी होते थे, विधवा स्त्री अपने देवर या अन्य पुरुष से विवाह कर सकती थी।
ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता, अपाला एवं विश्वारा जैसी विदुषी स्त्रियों का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था।
ऋग्वेद के प्रारम्भ में कबीलाई समाज तीन वर्गों में बँटा था- योद्धा, पुरोहित और सामान्य लोग (प्रजा)।
आर्य मूलतः शाकाहारी थे, परन्तु विशेष अवसरों पर मांस का प्रयोग भी करते थे। पेय पदार्थों में सोमरस का पान करते थे।
गाय को ‘अघन्या’ (न मारने योग्य) माना जाता था।
आर्य लोग तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे-(1) नीवी (अधोवस्त्र), (2) वासस् (उपरीय वस्त्र) तथा (3) अधिवासस् (ओढ़नी)।
ऋग्वेद में पगड़ी का भी उल्लेख मिलता है। उनके वस्त्र सूत, ऊन, मृगचर्म के बनते थे।
ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति : आर्थिक जीवन
आर्यों के आर्थिक जीवन के मूलभूत आधार कृषि एवं पशुपालन थे। वास्तव में आर्यों की आर्थिक स्थिति का मूलाधार पशुधन था तथा गाय मुद्रा की भाँति समझी जाती थी। अधिकांश लड़ाईयाँ गायों एवं चारागाह के लिए लड़ी गयी थीं ।
कृषि योग्य भूमि को ‘उर्वरा‘ अथवा ‘क्षेत्र‘ कहा जाता था। ऋग्वेद के सातवें मंडल में उल्लेख है कि विष्णु ने भूमि को कृषि योग्य बनाया। ॠग्वेद में फाल का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में कृषि सम्बन्धी प्रक्रिया से सम्बन्धित उल्लेख चतुर्थमण्डल में मिलता है।
भूमि निजी संपत्ति नहीं थी बल्कि सामूहिक अधिकार माना जाता था। खेती हेतु हल द्वारा भूमि को जोतने की शिक्षा सर्वप्रथम अश्विन द्वारा दी गई। लकड़ी के हल को ‘लांगल’, जुते खेत को ‘उर्वरा’, कुओं को ‘अवल’ कहा जाता था।
ॠग्वेद में एक ही अनाज अर्थात् यव का उल्लेख हुआ है।
ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था केवल निर्वाह अर्थव्यवस्था का चित्र प्रस्तुत करती है जिसमें सीमित रूप में शिल्प का भी विकास हुआ था। ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं।
ऋग्वेद में अयस् शब्द का प्रयोग ताँबे एवं कांसे के लिए किया गया है जिससे प्रकट होता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी।
चूँकि ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था में अधिशेष का अभाव था इसलिए संभवत: व्यापार के अस्तित्व का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलता है। हालांकि सीमित रूप में वस्तु विनिमय द्वारा व्यापार होता था पणि नामक लोग व्यापार से संबद्ध थे। ‘निष्क’ विनिमय का एक माध्यम था।
ऋग्वेद में उल्लिखित समुद्र शब्द का उपयोग जलराशि के रूप में किया गया है।
ऋग्वेद में कर संग्रहण नहीं होता था एवं इसके लिए कोई अधिकारी नहीं था। सम्भवतः प्रजा राजा को कर के रूप में स्वेच्छा से एक अंश देती थी, जिसका नाम बलि (अर्थात् चढ़ावा) था।
ऋण देकर ब्याज लेने वाले को ‘वेकनाट’ या ‘कुसीदिन’ कहा जाता था।
पशु ही सम्पत्ति (रयि) का मुख्य अंग था। लोग पणियों से डरते थे; क्योंकि वे मवेशियों के चोर होने के साथ पशुधन में अत्यन्त समृद्ध भी थे।
घोड़ा एक अति उपयोगी पशु था। अन्य जानवर थे हाथी, ऊँट, बैल, भेड़, बकरी, कुत्ते आदि।
ऋग्वैदिक कालीन संस्कृति : धार्मिक जीवन
ऋग्वेद काल में यज्ञ की तुलना में प्रार्थना अधिक प्रचलित थी। व्यक्तिगत प्रार्थना की तुलना में सामूहिक प्रार्थना को अधिमानता थी। देवताओं की उपासना की मुख्य रीति स्तुति पाठ करना व यज्ञ बलि अर्पित करना था। स्तुति पाठ पर अधिक जोर था।
ऋग्वैदिक काल के लोग अपने देवताओं से सन्तति, पशु, अन्न, धान्य, आरोग्य आदि पाने की कामना से उनकी उपासना करते थे।
ऋग्वैदिक लोग एकेश्वरवाद में विश्वास रखते थे। ऋग्वेद में अनेक देवताओं का अस्तित्व मिलता है अर्थात लोग बहुलवादी भी थे। ऋग्वैदिक देवकुल में देवियों की नगण्यता थी।
प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में आर्यों के देवताओं की तीन श्रेणियाँ थीं-
- आकाश के देवता-सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सवितृ, आदित्य, ऊषा अश्विन आदि।
- अंतरिक्ष के देवता-इन्द्र, रुद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, आपः मातरिश्वन आदि।
- पृथ्वी के देवता-अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।
ऋग्वेद में सबसे महत्त्वपूर्ण देवता इन्द्र को माना गया है जो वर्षा के देवता है। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति में 250 सूक्त है।
अग्नि दुसरे महत्त्वपूर्ण देवता जिनकी स्तुति में 200 सूक्त मिलते हैं । अग्नि को देवताओं व मनुष्यों के मध्य मध्यस्थ माना जाता था तथा यज्ञ की आहुतियाँ अग्नि के माध्यम से देवताओं तक पहुँचती थी।
तीसरी प्रमुख देवता वरुण था जिसे ऋतस्यगोपा कहा गया है, जो जलनिधि का प्रतिनिधित्व करता है।
सोम को पेय पदार्थ का देवता माना जाता है।
मरुत– आँधी-तूफान के देवता है।
ऋग्वेद में उषा, अदिति, सूर्या आदि देवियों का भी उल्लेख है।
अरण्यानी ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी थी।
ॠग्वेद के एक मंत्र में रुद्र शिव को त्रयम्बक कहा गया।
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वैदिक कालीन विशेषताओं के स्रोत
सिंधु घाटी सभ्यता की विशेषताएँ
ऋग्वेद का काल क्या है?
ऋग्वैदिक काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक अस्तित्व में रहा।
ऋग्वेद में मंत्रों की संख्या कितनी है?
ऋग्वेद के कुल 10 मंडल (अध्याय) में 1028 सूक्त (11 बालखिल्य सूक्त सहित ) है जिसमें लगभग 11 हजार मंत्र (10580) हैं।
ऋग्वेद के आर्य कौन थे?
आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे जिनका भारत में आगमन कई समूहों में हुआ। यह शब्द कोई एक समुदाय का प्रतिनिधित्व नहीं करता है बल्कि श्रेष्ठ,अभिजात्य, कुलीन माने जाने वाले समूहों का प्रतिनिधित्व करता है।
ऋग्वैदिक आर्यों का सामाजिक जीवन कैसा था?
गोत्र आधारित ऋग्वैदिक समाज एक पितृसत्तात्मक था जिसकी सबसे छोटी एवं आधारभूत इकाई परिवार थी, संयुक्त परिवार का प्रचलन था, महिलाओं की स्थिति परवर्ती युगों के सापेक्ष अच्छी थी, समाज में वर्ण विभाजन था, विवाह एक पवित्र संस्कार था, दास प्रथा का प्रचलन नहीं था, लोग शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों थे।
ऋग्वैदिक समाज में महिलाओं की क्या स्थिति थी?
ऋग्वैदिक काल में स्त्रियों को उत्तरववैदिक काल की अपेक्षा सम्मानजनक स्थान अधिकार प्राप्त था, उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार था, नियोग प्रथा का प्रचलन था, उन्हें शिक्षा का अधिकार प्राप्त था कात्यायनी, गार्गी मैत्रयी आदि विदुषी महिलाएं थी किन्तु महिलाओं को संपत्ति का अधिकार नहीं था तथा ऋग्वेद में पुत्रियों के लिए प्रार्थना नहीं किया जिससे स्पष्ट हैं कि उन्हें पुरुषों के बराबर अधिकार प्राप्त नहीं थे।
ऋग्वैदिक धर्म क्या है?
ऋग्वैदिक धर्म प्रकृतिवादी एवं बहुदेववादी स्वरुप का था जिसमें पुरुष देवताओं की प्रधानता थी, धर्म में दार्शनिक पहलू का आभाव था, लोग देवताओं की स्तुति भौतिक वस्तुओं के लिए करते थे, इस समय के प्रमुख देवताओं में इंद्र,अग्नि, वरुण, सोम आदि प्रमुख थे।
ऋग्वैदिक काल के प्रमुख देवता कौन थे?
ऋग्वेद में सबसे महत्त्वपूर्ण देवता इन्द्र को माना गया है जो वर्षा के देवता है। ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति में 250 सूक्त है। ऋग्वेद में देवताओं के कई वर्ग थे-
आकाश के देवता-सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सवितृ, आदित्य, ऊषा अश्विन आदि।
अंतरिक्ष के देवता-इन्द्र, रुद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, आपः मातरिश्वन आदि।
पृथ्वी के देवता-अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि।