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One Nation One Election : 3 important aspects

One Nation One Election  

एक देश एक चुनाव के मुद्दों को कुछ राजनीतिक दल समय समय पर उठाते रहते हैं विशेषकर सत्ताधारी दल एवं उनके नेताओं के द्वारा इस मुद्दों को महत्व दिया जाता रहा है। इसलिए यह चर्चा का विषय रहा है। संभव है कि विश्लेषणात्मक प्रकृति के प्रश्न पूछे जाएं जिनमें एक देश एक चुनाव (One Nation One Election) के फायदे एवं एक देश एक चुनाव के नुकसान जैसे विषय शामिल हों। 

ऐसे प्रश्नों का उत्तर बहुत ही सावधानीपूर्वक देना चाहिए नहीं टो उत्तर एक देश एक चुनाव पर निबंध हो जाएगा, इसलीय उत्तर लेखन शैली पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए।

नोट: अभ्यास के लिए नीचे दिए गए प्रश्न का उत्तर अपने अनुसार लिखने का प्रयास करें। सुविधा के लिए इससे संबंधित महत्वपूर्ण बिंदुओं को नीचे नोट्स के रूप में दिया गया है, किन्तु जरूरी नहीं हैं कि आपका उत्तर हू-ब-हू ऐसा ही हो। आप सुविधानुसार उत्तर को परिमार्जित कर सकते हैं।   

 

One Nation One Election :एक देश-एक चुनाव

अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: देश में एकसाथ चुनाव कराये जाने को लेकर पक्ष एवं विपक्ष में क्या तर्क दिए जाते है विश्लेषण करें.

Analyze what arguments are given in favor and against holding of simultaneous elections in the country.

प्रश्न: एक देश एक चुनाव एक उच्च आदर्श हो सकता है किन्तु इसका व्यवहारिक पक्ष कमजोर बुनियाद पर आधारित है। क्या आप सहमत है? आपण तर्क दीजिए।  

One nation one election may be a high ideal but its practical aspects are based on weak foundations. Do you agree? Give your reasoning.

प्रश्न: चुनाव सुधारों के क्रम में एक देश एक चुनाव की संकल्पना को लागू करने में संवैधानिक अड़चनों की पहचान करें एवं इसका क्या समाधान हो सकता है? 

Identify the constitutional bottlenecks in implementing the concept of one nation one election in the course of electoral reforms and what can be its solution?

 

देश में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मसले पर लंबे समय से बहस चल रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस विचार का समर्थन कर कई मंचो से इसे आगे बढ़ाया है।

 

”एक देश एक चुनाव’  भारत में कोई अनूठा प्रयोग नहीं है, क्योंकि 1952, 1957, 1962, 1967 में ऐसा पहले भी हो चुका है, जब लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई। 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे।’

एक देश एक चुनाव के फायदे

  • इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है।
  • लगातार चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है| इसकी वजह से सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को लागू करने समस्या आती है। इसके कारण विकास कार्य प्रभावित होते हैं।
  • सामान्य तौर पर एक राज्य में 5 साल के लिए चुनी सरकार अपने कार्यकाल में कम से कम 1 स्थानीय चुनाव एवं 1 आम चुनाव का सामना करना पड़ता है। इसका अर्थ है कि राज्य सरकार सिद्धांत: 5 वर्ष के लिए चुनी जाती है किन्तु उनका प्रभावी वास्तविक कार्यकाल 3.5 वर्ष से 4.0 वर्ष का ही होता है क्योंकि शेष अवधि में शासन तंत्र चुनाव में शामिल रहता है।
  • चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है।  यह स्पष्ट है कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है।
  • उल्लेखनीय है कि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किये जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है जिसके कारण सक्षम राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव प्रणाली के प्रभावित किए जाने की आशंका रहती है जो लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है ।
  • चुनाव जीतने के लिए राजनेताओं और राजनीतिक दलों के द्वारा लोगों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए भावनात्मक मुद्दों को भी उठाया जाता है जिससे सामजिक समरसता के भंग के भंग होने की आशंका होती है। लगातार चुनाव से इसमें वृद्धि की आशंका रहती है।
  • एक साथ चुनाव कराने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय तो बचेगा ही और वे अपने नियमित कर्त्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे।

एक देश एक चुनाव के नुकसान

  • विशेषज्ञों का मानना है किअगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएँ या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें।
  • दरअसल लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव का स्वरूप और मुद्दे बिल्कुल अलग होते हैं। लोकसभा के चुनाव जहाँ राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिये होते हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिये होते हैं।
  • लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है।
  • इसके अलावा कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है।
  • एकसाथ चुनाव का स्वरूप क्या है ? क्या जनता द्वारा चुनी हुई राज्य सरकार जिसने सदन में समर्थन खो दिया है उसे आगे भी कार्य करने का मौका मिलेगा या सभी दलों की एक राष्ट्रीय सरकार बनाई जाएगी ? दोनों ही स्थिति में जनता का समर्थन नहीं माना जा सकता।
  • एकसाथ चुनाव के लिए  सभी दलों की राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी चाहिए क्योंकि इसके लिए संविधान संशोधन करने होंगे एवं कई सरकारों को समय से पहले त्यागपत्र देना होगा।
  • इसके लिए किए गए प्रयास को क्या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं माना जाएगा? सुप्रीम कोर्ट इसके संवैधानिकता को किस रूप में स्वीकार करता है।

एक देश एक चुनाव के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ

एक देश-एक चुनाव के लिए सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के कार्यकाल को समन्वित करने की है। इसके लिए किसी विधानसभा के कार्यकाल को कम करना तो किसी के कार्यकाल को बढ़ाने की आवश्यकता होगी जिसमें व्यापक राजनैतिक आम सहमति आवश्यक है।

इसके लिए संविधान के निम्न अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा एवं इन संशोधनों को संवैधानिकता के आधार पर खड़ा उतरना होगा:-

    • अनुच्छेद 83: लोकसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पाँच वर्ष का होगा।
    • अनुच्छेद 85: राष्ट्रपति द्वारा लोकसभा भंग करने का अधिकार।
    • अनुच्छेद 172: विधानसभा का कार्यकाल उसकी पहली बैठक की तिथि से पाँच वर्ष का होगा।
    • अनुच्छेद 174: राज्य के राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का अधिकार है।
    • अनुच्छेद 356: राज्य में संवैधानिक मशीनरी की विफलता के मद्देनज़र राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार केंद्र सरकार को है।

दूसरी प्रमुख चुनौती एक साथ चुनाव के लिए आवशयक चुनावी संसाधन एवं प्रशासनिक तंत्र की उपलबद्धधता का होना है। विदित है कि चुनाव प्रक्रिया में केन्द्रीय बालों कि प्रमुख भूमिका होती है किन्तु एकसाथ चुनाव के लिए अधिक केन्द्रीय बलों की आवश्यकता होगी।

भारत के सामान्य लोगों की राजनीतिक परिपक्वता इस स्तर की नहीं है कि वे एक ही साथ राष्ट्रीय मुद्दे एवं स्थानीय मुद्दे को अलग अलग कर मतदान करें, खास तौर पर ग्रामीण आबादी जो अधिकांशत: स्थानीय एवं भावनात्मक मुद्दों पर मतदान करते हैं।

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने का समर्थन किया था।

इस मसले पर चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग विचार कर चुके हैं। अभी हाल ही में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिये तीन दिवसीय कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया था।

इस कॉन्फ्रेंस में कुछ राजनीतिक दलों ने इस विचार से सहमति जताई, जबकि ज्यादातर राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया।

उनका कहना है कि यह विचार लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है। जाहिर है कि जब तक इस विचार पर आम राय नहीं बनती तब तक इसे धरातल पर उतारना संभव नहीं होगा। चुनावों के इस चक्रव्यूह से देश को निकालने के लिये एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है।

इसके तहत जनप्रतिनिधित्व कानून में सुधार, कालेधन  पर रोक, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना शामिल है जिससे समावेशी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके।

आर्थिक रूप से ‘ एक देश एक चुनाव ‘ एक फायदेमंद सौदा हो सकता है लेकिन क्या लोकतान्त्रिक मूल्यों की कीमत पर इसे लागू किया जाना चाहिए ? यह एक गंभीर् बहस का विषय है। तार्किक रूप से इस व्यवस्था को लागू करना इतना आसान नहीं हैं क्योंकि लोकतान्त्रिक मूल्य जिनके आधार पर शासन व्यवस्था का संचालन होता है उसमें संशोधन की आवश्यकता होगी।

चुनाव के माध्यम से जनता सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रम के प्रति अपना मत प्रकट करती है और यह लोकतंत्र का आधार है। 

 

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