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छठी शताब्दी ईसा पूर्व का धार्मिक आन्दोलन : जैन धर्म बौद्ध धर्म
छठी शताब्दी ईसा पूर्व का काल भारतीय इतिहास में राजनैतिक के साथ साथ सामाजिक-धार्मिक रूप से भी उथल पुथल का काल था। इस काल में जैन एवं बौद्ध धर्म (Jainism and Buddhism in hindi) सर्वाधिक लोकप्रिय थे। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के धर्म (6th century religion) में जैन एवं बौद्ध धर्म के अलावे अन्य कई संप्रदाय थे।
जैन धर्म
जैन धर्म के संस्थापक एवं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। जैन धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हैं।
जैन धर्म के दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ का उल्लेख यजुर्वेद में मिलता है।
जैन धर्म के 22वें तीर्थंकर अरिष्टनेमी का उल्लेख ऋग्वेद में हुआ है।
23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे। पार्श्वनाथ का जन्म काशी में महावीर स्वामी से 250 वर्ष पूर्व हुआ था।
पार्श्वनाथ की माता का नाम वामा था। पार्श्वनाथ का विवाह कुशस्थल देश की राजकुमारी प्रभावती से हुआ था।
पार्श्वनाथ 30 वर्ष की आयु में वैराग्य उत्पन्न होने पर गृह त्यागकर संन्यास धारण कर लिए।
पार्श्वनाथ को कैवल्य की प्राप्ति ‘सम्मेद पर्वत‘ शिखर पर हुई।
जैन ग्रंथों में ‘पुरिसादानीय’ (महान पुरुष) पार्श्वनाथ को कहा गया है।
पार्श्वनाथ ने चार महाव्रतों का प्रतिपादन किया था
- अहिंसा
- सत्य बोलना
- चोरी न करना
- धन संग्रह करना
महावीर:
महावीर स्वामी जैन धर्म के 24वें एवं अंतिम तीर्थंकर हुए।
महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. में कुण्डग्राम (बासुकुण्ड, वैशाली) में ज्ञातृक कुल के क्षत्रिय सरदार सिद्धार्थ के घर हुआ। महावीर की माता त्रिशला लिच्छिवि शासक चेतक की बहन थी।
महावीर की पत्नी का नाम यशोदा एवं पुत्री का नाम प्रियदर्शना था।
प्रियदर्शना का विवाह जमालि नामक क्षत्रिय से हुआ, जो महावीर का प्रथम शिष्य बना।
महावीर ने 30 वर्ष की अवस्था में अपने बड़े भाई नन्दिवर्धन अनुमति लेकर गृह त्याग दिया।
12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद महावीर को 42वें वर्ष में ऋजुपालिका नदी के तट पर जम्भिक नामक ग्राम में एक साल वृक्ष के नीचे ज्ञान (कैवल्य) की प्राप्ति हुई। इसके उपरान्त महावीर केवलिन, जिन, अर्हत, निर्ग्रन्थ कहलाए।
महावीर की प्रथम जैन भिक्षुणी चन्दना थी जो चम्पा के शासक दधिवाहन की पुत्री थी।
बौद्ध साहित्य में महावीर स्वामी को ‘निगण्ठनाथपुत्त‘ कहा गया है।
महावीर स्वामी ने पार्श्वनाथ के चार महाव्रतों में पांचवां ब्रह्मचर्य व्रत जोड़ दिया।
महावीर के 11 प्रधान शिष्य ‘गणधर‘ कहलाते थे।
महावीर स्वामी के मृत्यु के उपरान्त ‘सुधर्मन‘ जैन संघ के प्रधान बने। सुधर्मन की मृत्यु के उपरान्त ‘जम्बू’ जैन संघ के प्रधान बने।
जैन धर्म- दर्शन:
जैन धर्म की उपदेशिक भाषा प्राकृत थी। जैन धर्म के धार्मिक ग्रंथों की रचना अर्धमागधी भाषा में की गई।
जैन धर्म कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्नों को स्वीकार करता है।
- सम्यक ज्ञान
- सम्यक दर्शन
- सम्यक चरित्र
जैन धर्म में ‘अनन्त चतुष्ट्य‘ को स्वीकार किया गया है, जो हैं –
- अनन्त ज्ञान
- अनन्त दर्शन
- अनन्त वीर्य
- अनन्त सुख
जैन धर्म में ‘स्यादवाद’ (अनेकांतवाद) अथवा ‘सप्तभंगीनय‘ को ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत कहा गया है।
जैन धर्म ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है।
जैन धर्म पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास करता है।
जैन धर्म में उपवास द्वारा शरीर के त्याग को ‘सल्लेखना‘ कहा गया है।
जैन धर्म के एक महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘कल्पसूत्र‘ की रचना संस्कृत में हुई है।
‘बसदि‘ जैन मठों को कहा जाता है।
जैन धर्म में साधुओं के पांच महाव्रतों एवं गृहस्थों के लिए पांच अणुव्रतों को स्वीकार किया गया है।
पांच महाव्रत निम्न हैं – अहिंसा, सत्य वचन, अस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य
जैन ग्रंथ आचारांग सूत्र में जैन भिक्षुओं के विधि-निषेधों एवं आचार-विचारों (कठोर नियमों) का वर्णन मिलता है।
जैन ग्रंथ भगवती सूत्र में महावीर स्वामी के जीवन की शिक्षाओं का विशद् विवेचना मिलता है।
जैन साहित्य को आगम कहा जाता है, जिनकी कुल संख्या 12 है।
जैन संगीति:
प्रथम जैन समिति चंद्रगुप्त मौर्य के समय 322 ई.पू. में पाटलिपुत्र में ‘स्थूलभद्र’ की अध्यक्षता में हुई। इसी समय 12 अंगों में जैन सिद्धांतों का संकलन किया गया।
प्रथम जैन समिति (सभा) में जैन धर्म का दो भागों में विभाजन हो गया – श्वेतांबर (जो सफेद वस्त्र धारण करते हैं) और दिगम्बर (जो नग्नावस्था में रहते हैं)।
जैन धर्म में विभाजन के उपरांत जैन मुनि भद्रबाहु एवं उनके अनुयायी दक्षिण की ओर पलायन कर गए, जो दिगम्बर कहलाए।
जैन धर्म में विभाजन के उपरांत स्थूलभद्र एवं उनके अनुयायी मगध में ही रहे। इन्हें श्वेतांबर कहा गया।
श्वेतांबर संप्रदाय के लोगों ने ही सर्वप्रथम महावीर एवं अन्य तीर्थकरों की पूजा आरंभ की।
जैन धर्म का समर्थन निम्न राजाओं ने किया – गंग, कदम्ब, चालुक्य एवं राष्ट्रकूट।
दक्षिण भारत में राष्ट्रकूट राजाओं के शासन काल में जैन धर्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष जैन संन्यासी बन गया था।
जैन धर्म के उत्तर भारत में दो प्रमुख केंद्र थे – मथुरा एवं उज्जैन।
चन्देल शासकों ने खजुराहो में जैन मंदिरों का निर्माण कराया।
जैन मुनियों में संस्कृत का सबसे अच्छा विद्वान नयचंद्र था।
10वीं शताब्दी के मध्य में कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में बाहुबलि की मूर्ति (गोमतेश्वर की मूर्ति) का मैसूर के गंग वंश के मंत्री चामुण्डा के प्रोत्साहन से निर्माण किया गया।
दूसरी जैन सभा 512 ई. में वलभी (गुजरात) नामक स्थान पर देवर्धि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में संपन्न हुई। इस सभा में धर्म ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया।
72 वर्ष की अवस्था में महावीर स्वामी की मृत्यु (निर्वाण) 468 ई.पू. में राजगृह के निकट पावा में हुई।
महावीर स्वामी को निर्वाण की प्राप्ति मल्लराजा मस्तिपाल के राजप्रासाद में हुई थी।
श्वेतांबर संप्रदाय का वह समूह जिसने मूर्ति पूजा की स्थान पर ग्रंथ पूजा को आरंभ किया तेरापंथी संप्रदाय कहलाया।
यापनीय संप्रदाय की स्थापना एक श्वेतांबर मुनि कलश द्वारा की गई थी।
जैन धर्म के प्रमुख तीर्थकरों के प्रतीक:
क्रम सं. | तीर्थंकर | प्रतीक |
1 | ऋषभदेव | सांड |
2 | अजितनाथ | हाथी |
3 | संभव | घोड़ा |
4 | सुब्रत | कच्छप |
5 | नाभि | नीलकमल |
6 | अरिष्टनेमि | शंख |
7 | पार्श्वनाथ | फणदार सर्प |
8 | महावीर स्वामी | सिंह |
जैन संगीतियां
प्रथम जैन संगीति | ||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य |
स्थूलभद्र | 322-298 ई.पू | पाटलिपुत्र | चंद्रगुप्त मौर्य | जैन धर्म के महत्वपूर्ण 12 अंगों का प्रणयन किया गया। जैन धर्म का श्वेतांबर एवं दिगंबर में विभाजन |
द्वितीय जैन संगीति | ||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य |
देवर्धि क्षमाश्रमण | 512 ई. | वल्लभी | – | धार्मिक ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर अर्धमागधी भाषा में लिपिबद्ध किया गया। |
बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध:
बौद्ध धर्म की स्थापना गौतम बुद्ध ने की थी। बुद्ध का जन्म 563 ई.पू. में लुम्बनी (कपिलवस्तु) नामक स्थान पर हुआ था। इनके पिता का नाम शुद्धोधन था जो शाक्यगण के प्रधान थे।
इनकी माता का नाम महामाया था जो कोलियगण की राजकमारी थी।
बुद्ध की माता की मृत्यु उनके जन्म के सातवें दिन हो गई। बुद्ध का पालन-पोषण उनकी सौतेली मां महाप्रजापति गौतमी ने किया था।
बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। बुद्ध का विवाह 16 वर्ष की आयु में यशोधरा के साथ हुआ। इनके पुत्र का नाम राहुल था।
बुद्ध के जीवन की चार घटनाओं ने उन्हें बहुत प्रभावित किया, जो निम्न हैं
- वृद्ध व्यक्ति को देखना
- एक रोगग्रस्त व्यक्ति को देखना
- एक मृत व्यक्ति को देखना
- एक भ्रमणशील व्यक्ति को देखना
अतः सांसारिक व्यवस्थाओं से व्यथित होकर सिद्धार्थ ने 29 वर्ष की आयु में अपने प्रिय घोड़े कन्थक और सारथी छन्दक को साथ लेकर रात्रि में गृह त्यागकर चल दिए तथा अपने सारथी को राज्य की सीमा पर से आभूषणादि देकर वापस भिजवा दिया।
बुद्ध के गृहत्याग की घटना ‘महाभिनिष्क्रमण‘ कहलाती है।
गृहत्याग के पश्चात् सिद्धार्थ सर्वप्रथम गुरू की तलाश में वैशाली के निकट सांख्य दर्शन के विद्वान आलार कलाम के आश्रम में आए।
आलार कलाम के पश्चात् सिद्धार्थ ने राजगृह के रूद्रक रामपुत्र से शिक्षा ग्रहण की।
यहां से सिद्धार्थ ने अरुवेला के लिए प्रस्थान किया। यहां पर ही उनकी भेंट पांच साधकों से हुई जो निम्न हैं : कौंडिन्य, आंज (महानाम), अस्साजि, वप्प एवं भद्दिय।
बिना अन्न-जल ग्रहण किए 6 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद 35 वर्ष की अवस्था में वैशाख पूर्णिमा की रात निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर वट (पीपल) वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान की प्राप्ति हुई।
ज्ञान प्राप्ति के उपरांत सिद्धार्थ तथागत और बुद्ध कहलाए। ज्ञान प्राप्ति का स्थान बोधगया तथा जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ वह बोधि वृक्ष कहलाया।
गया में बुद्ध ने दो बंजारों को उपदेश देकर अपना अनुयायी बनाया, ये थे – तपस्सुक एवं कालिक (मल्लि) ।
बुद्ध ने सारनाथ (ऋषिपत्तन या मृगदाव) में अपना प्रथम उपदेश 5 ब्राह्मण संन्यासियों को दिया, जिसे बौद्ध धर्म ग्रंथों में ‘धर्म-चक्र प्रवर्तन‘ कहा जाता है।
बुद्ध ने अपने उपदेशों के लिए जनसाधारण की भाषा ‘पालि’ को अपनाया।
बुद्ध ने अपने उपदेश मगध, कौशल, वैशाली, कौशांबी एवं अन्य राज्यों की राजधानी में दिए।
बुद्ध ने अपने सर्वाधिक उपदेश कोसल राज्य की राजधानी श्रावस्ती में दिए।
बुद्ध के प्रमुख अनुयायी शासक निम्न थे – बिंबिसार, प्रसेनजित तथा उदयन।
बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई.पू. में कुशीनारा में चंद नामक लोहार द्वारा अर्पित भोजन करने के उपरांत हो गयी। जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘महापरिनिर्वाण‘ कहा गया।
बुद्ध का अंत्येष्टि संस्कार मल्लों द्वारा अत्यंत सम्मानपूर्वक किया गया।
मृत्यु के उपरांत बुद्ध के शरीर के अवशेषों को आठ भागों में विभक्त करके उन पर आठ स्तूपों का निर्माण कराया गया।
बुद्ध के जीवन से संबद्ध पंचचिह्न
- कमल व सांड – जन्म से
- घोड़ा – गृहत्याग से
- पीपल (बोधिवृक्ष)- ज्ञान प्राप्ति से
- पदचिह्न – निर्वाण से
- स्तूप – महापरिनिर्वाण से
गौतम बुद्ध के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाएं:
- महाभिनिष्क्रमण – गृहत्याग की घटना
- संबोधि – ज्ञान प्राप्ति की घटना
- धर्म चक्र प्रवर्तन- प्रथम उपदेश देने की घटना
- महापरिनिवाण – मृत्यु
बौद्ध धर्म – दर्शन:
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न निम्न हैं बुद्ध, धम्म एवं संघ।
बुद्ध अनीश्वरवादी एवं अनात्मवादी थे। उन्होंने ईश्वर एवं आत्मा दोनों की सत्ता को अस्वीकार किया। लेकिन बौद्ध धर्म कर्म एवं पुनर्जन्म को स्वीकार करता है।
बौद्ध धर्म के मूल आधार चार आर्य सत्य हैं, जो निम्न हैं
- दुख
- दुख समुदाय
- दुख निरोध
- दुख निरोधगामिनी प्रतिपदा
बुद्ध के उपदेशों का सार एवं उनकी संपूर्ण शिक्षाओं का आधारस्तंभ ‘प्रतीत्यसमुत्पाद‘ है जो कि कारणता सिद्धांत है। इसे द्वादश निदान, जरा-मुरण चक्र, धर्मचक्र आदि भी कहते हैं।
द्वादश निदान का संबंध भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालों से है।
बुद्ध के नैरात्मवाद (अनात्मवाद) एवं क्षणिकवाद का आधार प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धांत है।
बौद्ध धर्म का परम लक्ष्य ‘निर्वाण’ की प्राप्ति है। निर्वाण का अर्थ है- दीपक का बुझ जाना अर्थात जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति।
बुद्ध ने निर्वाण प्राप्ति को सरल बनाने के लिए दस शीलों पर विशेष बल दिया।
बुद्ध ने अपने चतुर्थ आर्य सत्य के अंतर्गत मूल कारण अविद्या के विनाश के लिए आष्टांगिक मार्ग पर विशेष बल दिए।
इस आष्टांगिक मार्ग के आठ अंग हैं, इन्हें मध्यम प्रतिपदा अर्थात् मध्यम मार्ग भी कहते हैं।
बौद्ध धर्म के आष्टांगिक मार्ग निम्न है।
- सम्यक् दृष्टि
- सम्यक् वाणी
- सम्यक् संकल्प
- सम्यक् कर्मान्त
- सम्यक् आजीव
- सम्यक् व्यायाम
- सम्यक् स्मृति
- सम्यक् समाधि
इन आष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का ‘कल्याण मित्र’ कहा गया जातक कथाएं बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएं हैं, इनका वर्णन सूत्तपिटक में है।
बुद्ध से संबंधित ‘अष्टमहास्थान‘ निम्न है – लुंबिनी, गया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, सकिसा, राजगृह तथा वैशाली।
बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियों का निर्माण ‘गांधार शैली’ के अंतर्गत किया गया लेकिन बुद्ध की प्रथम मूर्ति संभवतः मथुरा कला के अंतर्गत बनी थी।
बिंबिसार ने राजगृह में बुद्ध का स्वागत किया तथा ‘वेणुवन‘ दान में दिया।
बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द की प्रार्थना पर संघ में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति प्रदान की। संघ में प्रवेश पाने वाली प्रथम महिला इनकी सौतेली मां प्रजापति गौतमी थी।
देवदत्त ने संघ का अध्यक्ष बनने के लिए गौतम बुद्ध की हत्या का प्रयास किया, किंतु वह असफल रहा।
श्रावस्ती के एक व्यापारी की पुत्री विशाखा ने बुद्ध की शिष्यता ग्रहण करके ‘पूर्वाराम विहार‘ का निर्माण करवाया।
कौशांबी के शासक वत्सराज उदयन के मंत्री ने बुद्ध को ‘घोषिताराम विहार‘ दान में दिया था।
लिच्छवी संघ की गणिका आम्रपाली गौतम बुद्ध की शिष्या बन गयी तथा ‘आम्रपाली वन‘ दान दिया।
श्रावस्ती में ही बुद्ध ने डाकू अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन कर अपना शिष्य बनाया।
कनिष्क के शासनकाल में बौद्ध धर्म का दो भागों में विभाजन हो गया – हीनयान एवं महायान।
कनिष्क के शासनकाल में ही चतुर्थ बौद्ध संगीति हुई थी।
बुद्ध को तीन अन्य नामों से भी जाना जाता है – बुद्ध, तथागत एवं शाक्यमुनि।
‘विश्व दुखमय है‘ का सिद्धांत महात्मा बुद्ध ने उपनिषद से ग्रहण किया।
भिक्षुक – बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जिन्होंने संन्यास ग्रहण किया उन्हें भिक्षुक कहा गया।
उपासक – गृहस्थ जीवन में रहते हुए बौद्ध धर्म स्वीकार करने वालों को उपासक कहा गया है।
बौद्ध संघ में प्रवेश के लिए न्यूनतम आयु सीमा 15 वर्ष थी एवं संघ में प्रवेश के लिए प्रव्रज्या की दीक्षा दी जाती थी।
श्रामणेर – प्रव्रज्या ग्रहण करने वाले भिक्षु को श्रामणेर कहा जाता था।
सर्वप्रथम बौद्ध धर्म द्वारा ही धार्मिक जुलूसों को प्रारंभ किया गया। इनका सबसे पवित्र त्योहार ‘वैशाख पूर्णिमा‘ है, जिसे ‘बुद्ध पूर्णिमा’ भी कहा जाता है।
बुद्धघोष बौद्ध धर्मग्रंथों के एक महान टीकाकार हैं।
बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का स्रोत तैतिरीय उपनिषद में खोजा जा सकता है।
बौद्ध धर्म की शाखाएँ:
बौद्ध धर्म के संप्रदाय कनिष्क के शासनकाल में संपन्न चतुर्थ संगिति में बौद्ध धर्म दो भागों में विभाजित हो गया
- हीनयान
- महायान
हीनयान – बौद्ध धर्म के वे अनुयायी जिन्होंने बिना किसी परिवर्तन के बुद्ध के मूल उपदेशों को स्वीकार किया। ये निम्नमार्गी व रूढ़िवादी थे। ये बुद्ध की ईश्वर रूप में पूजा नहीं करते थे।
हीनयान संप्रदाय के सभी ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए हैं। हीनयान को श्रावकयान भी कहा जाता है। आगे चलकर हीनयान संप्रदाय भी दो भागों में विभाजित हो गया
- वैभाषिक
- सौत्रांतिक
वैभाषिक मत का मुख्य केंद्र कश्मीर था। इस मत को बाह्य प्रत्यक्षवाद भी कहा जाता है।
वैभाषिक मत के प्रमुख विद्वान वसुमित्र, बुद्धदेव, धर्मप्रात, घोषक थे।
वसुबंधु ने वैभाषिक मत पर अभिधर्मकोश नामक ग्रंथ की रचना की।
सौतांत्रिक मत का मुख्य आधार ग्रंथ सुत्तपिटक है।
महायान – बौद्ध धर्म के कठोर एवं परंपरागत नियमों में परिवर्तन करके सुधारवादी प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने वाले महायानी कहलाए। इस मत के समर्थक उदारवादी, उत्कृष्टमार्गी एवं सुधारवादी थे।
महायान संप्रदाय के ग्रंथ संस्कृत भाषा में लिखे गए।
महायानी बुद्ध की ईश्वर के अवतार के रूप में उपासना करते थे एवं मूर्तिपूजा तथा संस्कारों के समर्थक थे।
महायान धर्म का नैतिक आदर्श बोधिसत्व की अवधारणा है। जबकि हीनयान धर्म का नैतिक आदर्श ‘अर्हत’ की अवधारणा है।
कालांतर में महायान संप्रदाय भी दो भागों में बंट गया – 1. शून्यवाद 2. विज्ञानवाद (योगाचार)
शून्यवाद अथवा सापेक्षवाद अथवा माध्यमिक मत के प्रवर्तक नागार्जुन थे। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘माध्यमिक कारिका’ है।
शून्यवाद के अन्य प्रमुख समर्थक थे आर्यदेव, चंद्रकीर्ति, शांतिदेव, शांतरक्षित।
योगाचार (विज्ञानवाद) के प्रवर्तक मैत्रेयनाथ हैं। इसका विकास असंग तथा वसुबंधु ने किया।
योगाचार मत के अन्य प्रमुख समर्थक थे – दिंगनांग, स्थिरमति तथा धर्मकीर्ति।
वज्रयान संप्रदाय में विभिन्न तांत्रिक सिद्धांतों को सम्मिलित किया गया है। यह संप्रदाय बौद्ध धर्म के बढ़ते तंत्र-मंत्र का परिणाम था। इस संप्रदाय में तारा नामक देवी को प्रमुख स्थान दिया गया।
मंजुश्रीमूलकल्प ग्रंथ में वज्रयान संप्रदाय के सिद्धांत मिलते हैं।
बुद्ध के पंचशील सिद्धांत का वर्णन छांदोग्य उपनिषद में मिलता है।
शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन को भारत का आइंस्टीन कहा जाता है।
बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार में अशोक, मिनांडर, कनिष्क तथा हर्षवर्द्धन जैसे शासकों ने विशेष योगदान दिया।
बौद्ध धर्म के मूल ग्रंथ त्रिपिटक (तीन पिटक) हैं
- सुत्तपिटक- धार्मिक विचारों एवं उपदेशों का संकलन
- विनयपिटक- भिक्षु एवं भिक्षुणियों के आवरण संबंधी नियमों का वर्णन
- अभिधम्मपिटक- बौद्ध मत की दार्शनिक एवं आध्यात्मिक व्याख्या
थेरगाथा एवं थेरीगाथा में भिक्षुओं एवं भिक्षुणियों की निर्मित गाथाओं का संकलन है।
बौद्ध संगीतियां :
प्रथम बौद्ध संगीति | |||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य | |
महाकस्सप | 483 ई.पू. | सप्तपर्णि गुफा | अजातशत्रु | बुद्ध के उपदेशों को सुत्तपिटक एवं विनयपिटक में बांटकर संकलित किया गया। |
द्वितीय बौद्ध संगीति | ||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य |
साबकमीर | 383 ई.पू. | वैशाली | कालाशोक | बौद्ध धर्म का दो भागों स्थविर एवं महासंघिक में विभाजन |
तृतीय बौद्ध संगीति | ||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य |
मोगलिपुत्त तिस्स | 251 ई.पू. | पाटलिपुत्र | अशोक | अभिधम्मपिटक का संकलन |
चतुर्थ बौद्ध संगीति | ||||
अध्यक्ष | समय | स्थान | शासनकाल | कार्य |
वसुमित्र (उपाध्यक्ष – अश्वघोष) | प्रथम शताब्दी ई. | कुण्डलवन (कश्मीर) | कनिष्क | ‘विभाषशास्त्र’ टीका का संकलन, बौद्ध संघ का हीनयान एवं महायान संप्रदायों में विभाजन |
बौद्ध धर्म के पूर्व के धार्मिक संप्रदाय:
क्रमांक | संप्रदाय | संस्थापक |
1 | आजीवक (भाग्यवादी) | मक्खलि गोशाल |
2 | घोर अक्रियावादी | पूरण कश्यप |
3 | उच्छेदवादी (भौतिकवादी) | अजित केशकंबलिन |
4 | नित्यवादी | पकुध कच्चायन |
5 | संदेहवादी | संजय वेलट्ठिपुत्र |