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संविधान एवं संविधानवाद
संविधान एवं संविधानवाद राजनितिक प्रणाली की दो महत्वपूर्ण व्यवस्था है, इस ब्लॉग में संविधान क्या है ? संविधानवाद क्या है ? संविधान एवं संविधानवाद में समानता तथा संविधान एवं संविधानवाद में अंतर (samvidhan aur samvidhan baad mein antar) आदि पहलुओं पर चर्चा की जा रही है.
संविधान क्या है?
संविधान की परिभाषा काफी जटिल है और पिछली दो शताब्दियों के दौरान यह काफी विकसित हुई है।
पश्चिमी विचारकों के अनुसार, संविधान वह दस्तावेज है जिसमें राष्ट्र का मूल और मौलिक कानून होता है, जो सरकार के संगठन और समाज के सिद्धांतों को स्थापित करता है अर्थात एक ऐसा दस्तावेज जिसके आधार पर राष्ट्र निर्माण एवं शासन किया जाता है।
किन्तु इस परिभाषा की एक सीमा है, क्या आपको नहीं लगता कि उपरोक्त परिभाषा के अनुसार संविधान में एक प्रकार का जड़त्व अथवा ठहराव है ?
वास्तविकता इससे अलग है लिखित संविधान होने के वावजूद हम दुनिया के कई हिस्सों में “जीवित संविधान” पातें हैं। अर्थात जैसे-जैसे समाज बदलता है, वैसे ही कानून और नियम भी बदलते हैं। भारत का संविधान भी एक जीवंत संविधान है इसका प्रमाण हैं कि संविधान सभा द्वारा निर्माण कर लागू होने के बाद 100 से अधिक संशोधन किये जा चुके हैं।
इसके अलावा, कुछ मामलों में राज्य के सभी पहलुओं को परिभाषित करने वाला दस्तावेज भी नहीं है, बल्कि कई अलग-अलग दस्तावेज और समझौते हैं जो सरकार की शक्ति को परिभाषित करते हैं।
संविधान किसी देश में सरकार को आधार प्रदान करता है, राजनीतिक संगठन की संरचना करता है तथा व्यक्तिगत एवं सामूहिक अधिकारों और स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
संवैधानिकता क्या है?
संवैधानिकता शासन की एक प्रणाली है जिसमें सरकार सीमित होती है, ताकि व्यक्तिगत और सामूहिक स्वतंत्रता के साथ अधिकारों का सामंजस्य स्थापित किया जा सके। संवैधानिकता के आभाव में सरकार नागरिकों के अधिकारों का सम्मान किए बिना एक मनमाने ढंग से अपनी शक्तियों का उपयोग करती है।
संवैधानिकता (और संविधान के) के विचार को लोकतंत्र की प्रगति और प्रसार के साथ प्रमुखता से जोड़ा जाता है।
राजतंत्रात्मक, अधिनायकवादी और तानाशाही व्यवस्थाओं में आमतौर पर कोई संविधान नहीं होता है या यदि यह मौजूद भी है तो इसका सम्मान नहीं किया जाता है।
व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों को अक्सर तानाशाही शासन में अवहेलना होती है, क्योंकि सरकार के लिए कोई कानूनी दस्तावेज नहीं है जो इसकी सीमा को परिभाषित करता है। इसलिए तानाशाही शासन में सरकार को जिम्मेवार भी नहीं ठहराया जा सकता है।
संविधान एवं संविधानवाद के बीच समानताएं
संविधान एवं संविधानवाद (संवैधानिकता) की अवधारणा एक दुसरे से जुड़ी हुई हैं, संविधान, कानून और विधान का लिखित निकाय है और संवैधानिकता एक जटिल सिद्धांत और शासन प्रणाली है। दोनों में कुछ समानताएँ हैं:
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- संविधान एवं संविधानवाद किसी देश की शासन प्रणाली की सीमाओं और विशेषताओं को निर्धारित करते हैं।संविधान के बिना संविधानवाद का अस्तित्व नहीं होगा, और किसी देश पर संवैधानिक तरीके से शासन करने के लिए सरकार पर सीमा की आवश्यकता होती है;
- संविधान एवं संविधानवाद सरकार और जनता के कार्यों को प्रभावित करते हैं। संविधान राजनितिक व्यवस्था के लिए एक ढांचा निर्मित करने के अलावा प्रमुख नियमों का निर्धारण करती है जिसका सम्मान सभी नागरिक करते हैं। इसके अलावा, संवैधानिक तरीके से शासन करने का अर्थ है कि सरकार नागरिकों के कृत्यों को सीमित करने और प्रबंधित करने के लिए संविधान में उल्लिखित नियमों को लागू करती है तथा हमेशा व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों का सम्मान करती है।
- संविधान एवं संविधानवाद व्यक्तिगत और सामूहिक अधिकारों की रक्षा और संरक्षण करते हैं, सरकार को उसकी शक्तियों का दुरुपयोग करने और नागरिकों के बुनियादी स्वतंत्रता का उल्लंघन करने से रोकते हैं।
- संविधान एवं संविधानवाद पिछली कुछ शताब्दियों के दौरान विकसित हुए हैं, लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रसार एवं नागरिक अधिकारों की विविधता में वृद्धि के कारण संविधान एवं संविधानवाद परिवर्तनशील रहें हैं।
संविधान एवं संविधानवाद के बीच अंतर
संविधान और संवैधानिकता के बीच मुख्य अंतर इस तथ्य में निहित है कि संविधान आम तौर पर एक लिखित दस्तावेज है, जो सरकार द्वारा बनाया जाता है (अक्सर नागरिक समाज की भागीदारी के साथ), जबकि संवैधानिकता एक सिद्धांत और शासन की एक प्रणाली है जो संवैधानिक नियमों का सम्मान करती है तथा जो कानून और सरकार की शक्ति को सीमित करता है।
संविधान (और सामान्य रूप से कानून) एक जीवित इकाई है जिसे आधुनिक दुनिया और आधुनिक समाजों की बदलती विशेषताओं के अनुकूल होना चाहिए। अपने मूल सिद्धांतों और मूल्यों को खोए बिना – संविधान को अनुकूलित करने में असफल होना एक अप्रचलित और अडिग शासन प्रणाली को जन्म दे सकता है।
दोनों अवधारणाओं के बीच निम्न अंतर हैं:
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- संवैधानिकता संविधान में उल्लिखित सिद्धांतों पर आधारित है– इसके अलावे यह स्वयं का एक सिद्धांत भी है। संवैधानिकता का विचार सत्तावादी और निरंकुश शासन की अवधारणा के विपरीत है और इस विश्वास पर आधारित है कि ज्यादतियों को रोकने एवं व्यक्तिगत अधिकारों के लिए सरकार की शक्ति सीमित होनी चाहिए.
- संविधान अक्सर एक लिखित दस्तावेज होता है (हालाँकि संविधान लिखित या अलिखित हो सकता है) , जबकि संविधानवाद के सिद्धांत आमतौर पर अलिखित होते हैं। संविधान और संवैधानिकता दोनों लोकतांत्रिक आदर्शों के प्रचार के साथ विकसित होते हैं – हालांकि वे हमेशा एक ही गति से आगे नहीं बढ़ते हैं। इसी समय, एक संविधान के अस्तित्व के बावजूद, एक अक्षम लोकतांत्रिक सरकार संवैधानिक तरीके से शासन करने में सक्षम नहीं हो सकती है।
- संविधानवाद के लिए एक आवश्यक तत्व संविधान का होना है अर्थात संविधान के बिना संविधानवाद की कल्पना करना थोड़ा मुश्किल है, किन्तु जहाँ संविधान है वहां संविधानवाद होगा ही यह कहना भी सही नहीं है. संविधानवाद एक प्रकार से संविधान को लागू करने वाले ढांचे पर निर्भर करता है. उदहारण के लिए पाकिस्तान में संविधान मौजूद है किन्तु वहां संविधानवाद का विकास भारत की तुलना में कम हुआ है.
- संविधान जीवंत होता है जिसमें समाज की बदलती परिस्थितियों के अनुरूप संशोधन किया जाता है जबकि संवैधानिकता का विकास एतिहासिक रूप हुआ है. संविधानवाद एक वैश्विक नियम पर आधारित है जिसमें सरकार एक सीमित संवैधानिक सरकार होती है.
- संविधान में परिवर्तन करने में लोगों की भूमिका प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः होती है किन्तु संवैधानिकता में परिवर्तन सामन्यतया नहीं होता है तथा इसमें लोगों की कोई भूमिका नहीं होती है, हालाँकि इसमें परिवर्तन के बाद लोगों को सरकार के कार्यों के आधार पर गैर संवैधानिकत का ज्ञान होता है तथा लोग लोकतान्त्रिक मूल्यों के अनुरूप इसका विरोध करते हैं.
संविधान बनाम संविधानवाद का सारांश
संविधान एक आधिकारिक दस्तावेज होता है जिसमें ऐसे प्रावधान होते हैं जो सरकार और देश के राजनीतिक संस्थानों की संरचना को निर्धारित करते हैं, और जो सरकार और नागरिकों के लिए नियमों और सीमाओं को निर्धारित करते हैं। इसके विपरीत, संविधानवाद असंवैधानिकता और अधिनायकवाद के विरोध में परिभाषित शासन प्रणाली है। संविधानवाद एक सिद्धांत है, जो केंद्र सरकार की शक्ति को सीमित करती है, ताकि जनता के बुनियादी अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा की जा सके।
इसलिए, दोनों अवधारणाएं सरक शक्ति को सीमित करने के विचार से जुड़ी हुई हैं – और किसी तरह नागरिकों के कृत्यों के लिए सीमाएं भी बना रही हैं – लेकिन वे प्रकृति में बहुत भिन्न हैं।
संविधान, जो आधुनिक समय की एक प्रमुख विशेषता है, सदियों के दौरान विकसित हुइ है और यह समाजों और राजनीतिक प्रणालियों के बदलते स्वरूप के अनुकूल है।
संविधान और संविधानवाद दोनों ही लोकतंत्र के विचार से बंधे हैं और नागरिकों को व्यक्तिगत तथा सामूहिक अधिकारों का लाभ लेने के लिए कानूनी ढांचा प्रदान करते हैं।
संविधान एक देश का मूल कानून और रीढ़ है, जबकि संविधानवाद संविधान या अन्य मुख्य दस्तावेजों – और संवैधानिक सिद्धांतों पर आधारित शासन प्रणाली है।
संविधानवाद / संवैधानिकता के घटक
इस प्रकार स्पष्ट है कि संवैधानिकता की कोई स्वीकृत परिभाषा नहीं है, किन्तु इसे एक विचार के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसके अनुसार एक सरकार को अपनी शक्तियों में सीमित होना चाहिए। इस प्रकार संवैधानिकता एक सरकार पर निर्धारित सीमाएं हैं, जो एक संविधान द्वारा निर्धारित होती हैं। ये सीमाएँ या तो संविधान द्वारा नागरिकों को अधिकार देकर या राज्य के अधिकार पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाकर, राज्य की शक्ति का दायरा निर्दिष्ट करने के लिए लगाई जाती हैं। इसी आधार पर संविधानवाद के घटक की पहचान की जा सकती है:-
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- संविधान : संविधान सबसे मौलिक दस्तावेज होता है जो सरकारों के अधिकारों को सीमित एवं प्रतिबंधित करता है. इससे यह आभास होता है कि संवैधानिकता/संविधानवाद के लिए संविधान का होना आवश्यक हैं किन्तु यह सदैव सत्य नहीं हैं.
उदाहरण के लिए ब्रिटेन में लिखित संविधान नहीं हैं किन्तु ब्रिटेन की व्यवस्था भारत की तुलना में अधिक उदार हैं. फिर अलिखित संविधान के रूप में एक मार्गदर्शक सिधांत है जिसके आधार पर प्रजा के अधिकारों का संरक्षण होता है.
इसप्रकार संविधान या कोई अन्य आदर्श अथवा सिद्धांत जो नागरिकों के अधिकारों को राज्य पर प्रतिबंध के द्वारा संरक्षण प्रदान करता हो, संविधानवाद का आवश्यक घटक है.
भारतीय संविधान में उल्लिखित मौलिक अधिकार सरकार को प्रतिबंधित करते हैं कि राज्य ऐसे कानूनों को नहीं बना सकता जो मौलिक अधिकारों को सीमित करते हों अथवा उल्लंघन करते हों, नागरिकों को मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायपालिका की शरण लेने का अधिकार प्राप्त हैं.
संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ, राज्य एवं समवर्ती सूची के माध्यम से केंद्र एवं राज्यों के मध्य शक्तियों का विभाजन किया गया है, जिसके दायरे में रहकर ही सरकार अपने अधिकारों का प्रयोग कर सकती है.
इस प्रकार संवैधानिकता के लक्ष्य सीमित राज्य को संविधान के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता हैं.
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- न्यायपालिका : न्यायपालिका का सर्वोच्च प्राधिकार संवैधानिकता का दूसरा महत्वपूर्ण घटक है. न्यायपालिका न्यायिक पुनरवलोकन/समीक्षा के माध्यम से संसद द्वारा निर्मित कानून के संवैधानिकता की जांच कर सरकार को सीमित करती है.
इस सम्बंध में केशवानंद भारती वाद को लिया जा सकता है जिसमें न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढांचे की परिकल्पना को पारित करते हुए सरकार को सिमित किया. दूसरी ओर, न्यायपालिका का स्वतंत्र प्राधिकार लोगों को अधिकार प्रदान करता है कि वे सरकार के कार्य अथवा नीतियों के खिलाफ न्यायपालिका के शरण में जा सकती है.
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- संकल्पनात्मक व्यवस्था : इसके अंतर्गत वैसे मूल सिद्धांतों को रखा जा सकता है जिसके आधार पर सरकार को कार्य करने की अपेक्षा की जाती है. इसे निम्न सिद्धांतों में देखा जा सकता है :-
- विधि का शासन : यह एक प्रकार से सरकार के मनमानेपन के विरुद्ध संरक्षण हैं. अर्थात् शासन प्रणाली का आधार विधि होगा जिसका निर्धारण लोकतान्त्रिक पद्धति से किया जायेगा. अर्थात सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान माने जायेंगे तथा समान परिस्तिथि में उनके साथ सामान व्यवहार किया जायेगा.
- शक्तियों का पृथक्करण: इसके दो पहलू हैं, पहला सरकारके तीनों अंग अर्थात विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका अपने अपने दायरे में रहते हुए कार्य करेंगे किन्तु भारतीय संविधान में इस कार्य विभाजन को कठोरता से लागू नहीं किया गया है.
- संकल्पनात्मक व्यवस्था : इसके अंतर्गत वैसे मूल सिद्धांतों को रखा जा सकता है जिसके आधार पर सरकार को कार्य करने की अपेक्षा की जाती है. इसे निम्न सिद्धांतों में देखा जा सकता है :-
उदाहरण के लिए विधायिका का कार्य विधि बनाना हैं किन्तु आवश्यकतानुसार न्यायपालिका कानून की कमी को भर सकती है इसी प्रकार न्यायपालिका कार्यपालिका के कार्यों को निष्पादित कर सकती है. यह एक प्रकार से ‘रोक एवं संतुलन’ के सिद्धांत पर कार्य करती है.
दूसरा पहलू है, केंद्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन जिसके आधार पर दोनों सरकारें कार्य करती है तथा किसी विवाद की स्थिति में सर्वोच्च न्यायलय में जाया जा सकता है.
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- संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत : केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य वाद में न्यायपालिका ने इस सिद्धांत के माध्यम से संसद के लिए एक लक्ष्मण रेखा का निर्धारण किया जिसका कभी भी अतिक्रमण नहीं किया जा सकता किन्तु इसकी विशेषताओं को अपरिभाषित रखा गया तथा समय समय पर इसका विस्तार करते हुए सरकार को सीमित करती है.
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